आर्थिक मजबूती के मामले में भारत कभी भी इतनी बेहतर स्थिति में नहीं हो सकता था जितना कि आज है और पेट्रोल के बड़े हुए दाम भी इस मजबूत आर्थिक स्थिति का कारण है । पेट्रोल के इन दामों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उस समय मदद की है जब रूस, ताइवान और ब्राजील जैसे देश मंदी का सामना कर रहे हैं जबकि चीन की वृद्धि दर पिछले 25 साल में सबसे निचले स्तर पर है।
इससे भारत सरकार को तीन चीजों को पुनर्जीवित करने में मदद मिली है जो अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण रूप से जरुरी थी – मुद्रास्फीति(रेट में बढ़ोतरी और मांग), ब्याज दरें और राजकोषीय घाटा। लगभग तीन साल पहले देखें तो इंडियन इकॉनमी को घाटा पहुंचाने वाले ये बहुत ही बड़े कारक थे जो लगभग भारतीय अर्थव्यवस्था को खत्म कर देते।
कच्चे तेल की ये कीमतें, डॉलर में खरीद के हिसाब से पिछले 12 साल के मुकाबले कम है और इसी चीज़ ने हमारी अर्थव्यवस्था को अपने पड़ोसी देशो की तुलना में बेहतर स्थिति तक पहुंचने में मदद की है। लेकिन सवाल यह है कि – यदि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जुलाई 2014 के स्तर से कच्चे तेल की कीमत 75% से नीचे है तो हमें उसी अनुपात में लाभ क्यों नहीं मिला ?
कुछ आलोचकों का कहना है कि 2012-13 में कच्चे तेल की कीमत 150 डॉलर प्रति बैरल थी और पेट्रोल की कीमतें 70 रुपये प्रति लीटर थीं, अब कच्चे तेल की कीमत 33 डॉलर प्रति बैरल है, पेट्रोल की कीमतें 60 रुपये के करीब हैं। ऐसा क्यों?
जब कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आई, तो सरकार ने भारतीय उपभोक्ता को लाभ का एक अंश देने का फैसला किया, जबकि शेष का इस्तेमाल राजकोषीय घाटे को कवर करने के लिए किया गया था।
हालाँकि 2012-13 के दौरान मुद्रास्फीति और ब्याज दरें खतरनाक स्तर पर थीं और उस समय कच्चे तेल की कीमतें 150 डॉलर प्रति बैरल थीं और पेट्रोल की कीमतें 70 थीं वही 200 9-14 के दौरान मुद्रास्फीति लगभग 10% थी और राजकोषीय घाटा 8-10% की लिमिट के साथ उतार-चढ़ाव झेल रहा था। इसे घाटे को ध्यान में रखते हुए, उस दौरान भारतीय अर्थशास्त्र गलत लग रहा था क्योंकि मुद्रास्फीति और राजकोषीय धन भारतीय अर्थव्यवस्था का एक मुख्य चालक हैं।
अब बात आती है कि क्रूड आयल की कीमत में कमी आने पर उपभोक्ताओं का लाभ क्यों नहीं मिला
क्रूड आयल की ये कीमते तेल मार्केटिंग कंपनियों तय करती है और कच्चे तेल की कीमतें उच्च रखती है, न कि सरकार। चूंकि कच्चे तेल की कीमतें घटी पर पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी (उत्पाद शुल्क) में 34% की वृद्धि हुई है, जबकि डीजल पर 140% की वृद्धि हुई है। इसलिए, उपभोक्ता टैक्स और उत्पाद शुल्क का भुगतान करता है जो पेट्रोल या डीजल की वास्तविक लागत से अधिक है। हम एक लीटर के लिए तो ₹ 57 ही भुगतान करते हैं जबकि लगभग 44% टैक्स के रूप में सरकार के पास जाता है । इसी प्रकार, डीजल के लिए ₹44 का भुगतान उपभोक्ता करता है लेकिन इसमें , 55% सरकारी कर के रूप में दिया जाता है।
इसने भारत को कैसे फायदा पहुंचाया है?
वित्तीय वर्ष 2015 में, भारत में कच्चे तेल की कीमतों में कमी से मिलने वाला लाभ ₹ 2 लाख करोड़ रुपये था। इस राशि का मुख्य रूप से राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए उपयोग किया गया था। वास्तव में राजकोषीय घाटा 2014 के बाद से 4.5% के स्तर पर चला गया है। राजकोषीय घाटे में गिरावट के कारण मुद्रास्फीति के स्तर में भी एक अंक की कमी आ गई, जो 6% के करीब है। आरबीआई वित्त वर्ष 19 तक इसे 5% तक कम करने की योजना बना रहा है।
कच्चे तेल की कीमतों में आई इस कमी से आरबीआई को 350 बिलियन अमरीकी डालर के रिजर्व का निर्माण करने में भी मदद की जो आमतौर पर अशांत समय के दौरान रुपये में आने वाली गिरावट के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
फेडरल रिजर्व की ब्याज दर वृद्धि और चीन के युआन अवमूल्यन के दौरान रूस, चीन, ब्राजील, अर्जेंटीना और दक्षिण अफ्रीका समेत उभरती हुई करेंसीज का मूल्य 3-5% से अधिक हो गया। हालांकि, भारतीय रुपया 1% -2% गिर गया। लेकिन RBI ने इस समय आगे बढ़कर काम किया दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने वित्त वर्ष 17 में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमतों से 20 अरब डॉलर की कमाई की है। चूंकि सितंबर 2015 में बिकवाली शुरू हुई, आरबीआई ने रुपये का समर्थन करने के लिए 15 अरब डॉलर पहले ही घोषित कर दिए थे।
अभी देखा जाए तो रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले उच्चतम स्तर पर है,लेकिन मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटे जैसे मैक्रो-इकोनॉमिक कारक नियंत्रित स्तर के भीतर अच्छी स्थिति में हैं। इसलिए, यह कहना सुरक्षित है कि मोदी सरकार का पेट्रोल की कीमतें कम नहीं करने का ये फैसला अर्थव्यवस्था को मजबूती देगा क्योकि अगर उन्होंने ऐसा(अप्रभावी कीमत की वजह से पेट्रोल की मांग बढ़ती और पेट्रोल की इस मांग को पूरा करने की वजह से अथव्यवस्था पर बोझ बढ़ता ) नहीं किया होता, तो उसने भारतीय अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से क्षति पहुँचती।
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